रविवार, 9 मार्च 2008

दिल-दिमाग की जंग


भीड़ के बीच की तनहाई,
शोर के बीच की खामोशी,
महसूस की है कभी...
हकीकत के साये में पलते ख्वाब,
लगते हैं कि सामने आ जाएंगे अभी
तभी दस्तक देता है दिमाग,
जो दिल के मुकाबले हाशिए पर था कहीं
कहता है - कहां है भीड़, कहां है शोर,
यहां तो था कुछ भी नहीं...

8 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

See Here or Here

Rajiv K Mishra ने कहा…

छोटी-छोटी पंक्ति, लेकिन ख़ूबसूरत। जिंदा शब्द, आईने की तरह स्पष्ट भावनाएं। "ख्वाहिशों के पीछे भागते-भागते बीच में वक्त निकाल ही लिया और ज़ाहिर करनी शुरू की अपनी ख्वाहिशें..."....यह लाईन तो अंदर तक छू गया था।

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत गहराई है कविता में।सच है दिल और दिमाग कभी एक नही हो सकते।

तभी दस्तक देता है दिमाग,
जो दिल के मुकाबले हाशिए पर था कहीं
कहता है - कहां है भीड़, कहां है शोर,
यहां तो था कुछ भी नहीं...

Udan Tashtari ने कहा…

वाह जी वाह,,,बधाई..उम्दा रचना.

मीत ने कहा…

हाँ, समझ में आता है :
"एकांत भी जिसका
सुधियों के मेले के समान है ...
और भीड़ में रह कर भी
जो अकेला है ......

जिसने नियति का पावक झेला है .... "

"दिनकर" की याद है .....

Reetesh Gupta ने कहा…

अच्छी लगी आपकी यह गंभीर रचना...बधाई

Tarun ने कहा…

भीड़ के बीच की तनहाई,
शोर के बीच की खामोशी

शायद यकिन ना हो लेकिन हमने दोनों महसूस किया है। अच्छी लगी आपकी ये सोच

Unknown ने कहा…

ग़ज़ब। बहुत कम शब्दों में बहुत खूबसूरत बात और ज़ज़्बात उकेरे हैं। बहुत अच्छी रचना है।