
भीड़ के बीच की तनहाई,
शोर के बीच की खामोशी,
महसूस की है कभी...
हकीकत के साये में पलते ख्वाब,
लगते हैं कि सामने आ जाएंगे अभी
तभी दस्तक देता है दिमाग,
जो दिल के मुकाबले हाशिए पर था कहीं
कहता है - कहां है भीड़, कहां है शोर,
यहां तो था कुछ भी नहीं...
ख्वाहिशों के पीछे भागते-भागते बीच में वक्त निकाल ही लिया और ज़ाहिर करनी शुरू की अपनी ख्वाहिशें...
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8 टिप्पणियां:
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छोटी-छोटी पंक्ति, लेकिन ख़ूबसूरत। जिंदा शब्द, आईने की तरह स्पष्ट भावनाएं। "ख्वाहिशों के पीछे भागते-भागते बीच में वक्त निकाल ही लिया और ज़ाहिर करनी शुरू की अपनी ख्वाहिशें..."....यह लाईन तो अंदर तक छू गया था।
बहुत गहराई है कविता में।सच है दिल और दिमाग कभी एक नही हो सकते।
तभी दस्तक देता है दिमाग,
जो दिल के मुकाबले हाशिए पर था कहीं
कहता है - कहां है भीड़, कहां है शोर,
यहां तो था कुछ भी नहीं...
वाह जी वाह,,,बधाई..उम्दा रचना.
हाँ, समझ में आता है :
"एकांत भी जिसका
सुधियों के मेले के समान है ...
और भीड़ में रह कर भी
जो अकेला है ......
जिसने नियति का पावक झेला है .... "
"दिनकर" की याद है .....
अच्छी लगी आपकी यह गंभीर रचना...बधाई
भीड़ के बीच की तनहाई,
शोर के बीच की खामोशी
शायद यकिन ना हो लेकिन हमने दोनों महसूस किया है। अच्छी लगी आपकी ये सोच
ग़ज़ब। बहुत कम शब्दों में बहुत खूबसूरत बात और ज़ज़्बात उकेरे हैं। बहुत अच्छी रचना है।
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